तलाक के अधिकार में स्त्रियों से भेदभाव
अलग होने के मौके दोनों के लिए बराबर होने चाहिए
पति का अपने ससुराल वालों से अशिष्ट व्यवहार, गाली-गलौज वाला रिश्ता पत्नी के लिए तलाक का आधार नहीं बन सकता
सिद्धांत में बराबरी के बावजूद व्यवहार में इस अधिकार पर मालिकाना पुरुष का ही है
अपने देश में तलाक संबंधी नियम पुरुषों के पक्ष में झुके हुए हैं और कई मामलों में ये स्त्रियों के साथ भेदभाव करते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 में तलाक के लिए जिन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, उनमें निम्नलिखित बातें शामिल हैं। विवाह के बाद यदि पति या पत्नी अपनी इच्छा से किसी तीसरे के साथ शारीरिक संबंध बना ले, अपने जीवन साथी के साथ मानसिक या शारीरिक क्रूरता से पेश आए, तलाक की अर्जी देने से दो वर्ष पहले ही अपने जीवन साथी को छोड़कर चला गया हो या हिंदू धर्म को त्याग कर कोई और धर्म ग्रहण कर लिया हो तो यह तलाक का आधार बन सकता है। इस अधिनियम की धारा 13ए तथा 13बी के अंतर्गत पति-पत्नी दोनों एक साथ आपसी सहयोग से तलाक की अर्जी फाइल कर सकते हैं।
ससुरालियों से बरताव
1976 के संशोधन के अनुसार, पति-पत्नी एक या अधिक वर्ष से अलग रहते हैं तो वे यह अर्जी दे सकते हैं कि उनमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक अंतर इतने हैं कि काफी कोशिश के बावजूद वे साथ-साथ नहीं रह सकते।इस तरह हम देखते हैं कि कानून में स्त्री-पुरुष के तलाक संबंधी अधिकारों में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। फिर भी व्यवहार में स्त्री कहीं न कहीं छली जाती है।
विवाह के समय आज भी लड़कियों से पूछा नहीं जाता कि उन्हें अमुक लड़का पसंद है या नहीं। मां-बाप बेमेल शादियां करवाते हैं, अनपढ़ या बेरोजगार लड़के से शादी कर देते हैं, लेकिन इस आधार पर तलाक नहीं मांगा जा सकता। पत्नी अक्सर बिना मर्जी के, बीमार होने पर भी यौनेच्छा पूरी करने के लिए मजबूर है। यह भी तलाक का आधार नहीं है।
कितने बच्चे पैदा करने हैं, गर्भ धारण करना है या नहीं, यह सब पति की मर्जी से होता है। सास, ननद, देवर का क्रूरता भरा व्यवहार तलाक का आधार नहीं है, पर यदि पत्नी उनकी व्यवहार करती है, इज्जत नहीं करती तो यह पति के लिए तलाक का आधार हो सकता है। लेकिन पति का अपने ससुराल वालों से अशिष्ट व्यवहार, गाली-गलौज वाला रिश्ता पत्नी के लिए तलाक का आधार नहीं है।
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अनुसार यदि पति या पत्नी बिना किसी उचित आधार के दूसरे का साथ छोड़कर चला जाए तो पहला पक्ष वैवाहिक संबंधों की पुनर्वापसी के लिए मुकदमा कर सकता है। ऐसा मुकदमा अक्सर पत्नी के खिलाफ होता है। कारण यह कि अत्याचार के कारण अक्सर उसी को मायके जाना होता है। वह यदि अदालती आदेश के बावजूद ससुराल वापस नहीं आती तो पति को अधिकार है कि वह तलाक ले ले और जुर्माने के तौर पर पत्नी की संपत्ति में से एक हिस्सा भी।
यह कानून भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में आया। एक पढ़ी-लिखी महिला रुक्मा बाई के अनपढ़, बुरी आदतों में फंसे बेरोजगार पति ने उसके साथ न रहने पर मुकदमा दायर किया। रुक्मा बाई हार गई तो पहले उसकी गिरफ्तारी का आदेश हुआ और फिर सामाजिक दबाव के कारण सजा बदल कर संपत्ति की जब्ती के आदेश में बदली गई। तब से भारत में यह प्रावधान लागू है, जबकि ब्रिटेन में इसे खत्म कर दिया गया है। कारण/ यह प्रावधान जीने के अधिकार के खिलाफ है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट का कहना है- इस प्रावधान को हटाया गया तो यह शीशे के बरतनों की दुकान में सांड़ घुसा देने जैसा होगा। भारत में स्त्री की नौकरी छुड़वाने के लिए इस प्रावधान का प्रयोग पति द्वारा किया जाता है। कहा जाता है कि पत्नी के दूर रहने पर सहवास से वंचित रहना पड़ता है। लेकिन नौकरी के लिए पति के दूर रहने पर पत्नी को यह छूट नहीं मिलती।
कहने को तो स्त्री का अधिकार अपने मायके की पैतृक संपत्ति पर भी हो गया है, लेकिन क्या वह हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत अपना यह अधिकार मांग सकती है/ हकीकत यह है कि पैतृक संपत्ति में अधिकार की बात चलाते ही स्त्री का संबंध परिवार से समाप्त हो जाता है। अब तो कानून से बचने के लिए पहले से ही संपत्ति अपने या भाई के पोतों के नाम कर दी जाती है।
बुनियादी मसला संपत्ति का
ससुराल की संपत्ति में हिस्से की बात भी चल निकली है, लेकिन कहा जा रहा है कि पत्नी को दो जगह संपत्ति क्यों मिले/ पति का क्या होगा, या ससुराल के अन्य पुरुष सदस्यों का क्या होगा/ लड़कियों की भ्रूण हत्या से लेकर बड़ों की मर्जी से शादी तक की जड़ में बुनियादी मसला संपत्ति का ही है।
स्त्रियों के पक्ष में कानून बन तो रहे हैं, पर उन्हें अमली जामा पहनने में शायद एक-दो सदी और निकल जाए। इस देश का समाज और यहां की पुलिस, न्यायालय आदि जब तक अपनी पुरुषवादी सोच को नहीं त्यागते, तब तक यहां की स्त्रियां हर तरह के कानून में भेदभाव की शिकार होती रहेंगी।