करवाचैथ लोक परम्परा का त्यौहार है । रीति रिवाजों की जकड़न से मुक्त कर बाजार व्यवस्था ने इसे नया सांस्कृतिक रूप दे दिया है । गता-अनुगतिक लोकः- अर्थात देखा देखी सब इसे मनाने लगे है । सोशल मीडिया, टी वी सीरियलस तथा फिल्मों ने भी इसके रूपांतरण में अलग योगदान दिया है । जीवन में विचार व भावनाएं न केवल उमंग-उत्साह लाती है अपितु संबंधों में ताजगी व मद्युरता भी संचारित करती है । पर गौर से देखा व थोड़ा सोचा जाए, थोड़ी से परत उकेरी जाए तो इस त्यौहार का यर्थाथ सत्य या कटु सत्य अभिलक्षित होता है । स्त्री इस दिन सौलह श्रृंगार करती है - स्थूल श्रृंगार शिख से नख तक किस के लिए पति के लिए - उसकी खुशी के लिए । पर क्या वास्तव में आज ब्यूटी पार्लरस में जो भीड़ व बाजार में मेंहदी लगाने वालों के पास झुंड के झुंड दिखाई देते है, हजारों-लाखों रूपयांे की प्रसाद्यन सामग्री बेची व खरीदी जाती है स्त्री स्वयं को सजाने संवारने में खर्च करती है, उसमें उसका पति या साथी कितना शामिल है उसे कितना सुख मिलता है, यह तो खुदा ही जाने, पर वह स्वयं आत्म मुग्धा बन स्त्रीत्व के सही मायने नहीं समझती । सौलह श्रृंगार का सूक्ष्म अर्थ, सौलह कला संपूर्ण बनने से है, अपने व्यक्तित्व में गुणों के विकास से है । परस्पर संबंध आपसी मेलजोल तथा गुणों पर ज्यादा निर्भर करते है पति पत्नी में स्नेह व सहयोग, रिश्ते में मद्युरता-ताजगी उनके विचारों व भावनाओं की कैमस्टिरी से प्रेरित होते है । बाहरी साज सज्जा तो केवल परम्परा निर्वाह है, रूढ़ि पर चलना है । यही कारण है कि आज समाज में परिवारों में तलाब, अलगाव तथा पृथकीकरण की दरें बढ़ रही है। पारिवारिक कलह , कलेश निरंतर बढ़ रहे हैं । संयुक्त परिवार प्रथा विघटन की ओर अग्रसर है तथा एकल परिवार भी एक छत के नीचे रह कर , अलग-अलग जीवन जीने की आजादी का उपयोग कर, विवाह संस्था को चुनौती दे रहे हैं । अतिसंर्पक के इस युग में संबंध आज बौझ बन गये हैं । संबंद्यों में प्रतिबद्धता, दायित्वों तथा अधिकारों दोनों की दरकार है । पर अधिकार, स्वंतत्रता सब को चाहिए , दायित्व बोद्य तथा जिम्मेदारी की भावना जो संबंद्यों में ठहराव तथा स्थिरता लाती है, उसके लिए तैयार नहीं है । सास-सुसर, पति-पत्नी के संबंद्यों में प्रगाढ़ता लाने का यह करवाचैथ त्यौहार, जिसमें बहु इस दिन, सब घर के रूटीन के कार्यों-चुल्हा चैंका से छुट्टी पाकर तैयार होती थी तथा सासे भी इस दिन बहुओं का खाने-पीने, औढ़ने-पहनने का नया सामान उपलब्ध करवाती थी अर्थात उनकों माने देती थी तथा बेटों की गृहस्ती भलीभांति चले ऐसा अर्शीवाद दे शुभ कामना करती थी । पर अब मायने बदल गये है रूढ़ियों को तो टूटना ही चाहिए । पर भावनात्मक स्तर पर परिवार में बड़ों के लिए छोटों की तरफ से जो सम्मान व आदर देय है तथा संतानों का विवाह उपरान्त अपने बड़ों के प्रति आदर सत्कार, मान मर्यादा बनाये रखनी चाहिए ।उसी प्रकार मात-पिता, सास-सुसर को भी अपने पुत्र-पुत्रवद्युओं से स्नेह, सहयोग, प्रेम प्यार व्यक्त करते रहना चाहिए । यह त्यौहार इसी लेन-देन जोकि भावनात्मक रिश्तों को पुष्ट करती है, उस पर टिका है, न कि स्थूल लेन-देन व बाहरी साज सज्जा पर जोकि आज की बाजार व्यवस्था को चलते बन गया है । इस त्यौहार का आर्थिक पहलू भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी बहाने मंदी के दौर में बाजार में रौनक लौटी है तथा समाज के निचले तबकों की आय में वृद्धि करने के अवसर उपलब्ध होते है । मानव विचारशील प्राणी है । समझ और विचार, होशपूर्वक जीवन, जिसमें रोज नई उमंग उत्साह हो, जीना चाहिए । त्यौहार के पीछे छिपे अर्थांे को जान, उन्हें आन्नद से मनाना चाहिए । अंत में ‘‘ जिंदगी क्या है, चंद लम्हों की उद्यार है, जिंदगी ‘ कभी धूप तो कभी छांव है जिंदगी, जिस रंग में चाहे रंग लो जिंदगी को, हसीन बना लो जिंदगी को, ईश्वर की सौगात है जिंदगी ।
डा क कली