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श्रीरामनवमी का आध्यात्मिक महत्त्व

April 04, 2017 03:26 PM
श्री विष्णुके सातवें अवतार श्रीरामके जन्म प्रीत्यर्थ श्री रामनवमी मनाते हैं । चैत्र शुक्ल नवमीको रामनवमी कहते हैं । अनेक राममंदिरोंमें चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे लेकर नौ दिनतक यह उत्सव मनाया जाता है । रामायणके पारायण, कथाकीर्तन तथा राममूर्तिको विविध शृंगार कर, यह उत्सव मनाया जाता है । इस दिन प्रभु श्रीराम का व्रत करने से सर्व व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा सर्व पापों का क्षालन होकर अंत में उत्तम लोक की प्राप्ति होती है । नवमीकी दोपहरको रामजन्मका कीर्तन होता है । मध्यान्हकालमें, कुंची (छोटे बच्चेके सिरपर बांधा जानेवाला एक वस्त्र । यह वस्त्र पीठतक होता है ।) धारण किया हुआ एक नारियल पालनेमें रखकर उस पालनेको हिलाते हैं व भक्तगण उसपर गुलाल तथा फूलोंका वर्षाव करते हैं । कुछ स्थानोंपर पालनेमें नारियलकी अपेक्षा श्रीरामकी मूर्ति रखी जाती है । इस प्रसंगपर श्रीरामजन्मके गीत गाए जाते हैं । उसके उपरांत प्रभु श्रीरामके मूर्तिकी पूजा करते हैं व प्रसादके रूपमें सोंठ देते हैं । कुछ स्थानोंपर महाप्रसाद भी देते हैं । इस दिन प्रभु श्रीरामका व्रत करनेसे सर्व व्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा सर्व पापोंका क्षालन होकर अंतमें उत्तम लोककी प्राप्ति होती है ।
श्रीरामनवमी का आध्यात्मिक महत्त्व
किसी भी देवता एवं अवतारों की जयंती पर उनका तत्त्व पृथ्वी पर अधिक मात्रा में कार्यरत होता है । श्रीरामनवमी को श्रीरामतत्त्व अन्य दिनों की अपेक्षा १००० गुना अधिक कार्यरत होता है । श्रीराम नवमी पर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम ।’ नामजप एवं श्रीराम की भावपूर्ण उपासना से श्रीरामतत्त्वका अधिकाधिक लाभ होता है ।
श्रीराम का पूजन कैसे करें ?
प्रभु श्रीराम की प्रतिमा को अनामिका से (छोटी उंगलीके पासवाली उंगलीसे) गंध (चंदन) लगाएं । चार अथवा चारकी मात्रामें चंपा, चमेली अथवा जाही के फूल चढाएं । चमेली, जाही व अंबर में से किसी एक गंध की अगरबत्ती से आरती उतारें । श्रीराम को तीन अथवा तीन की संख्या में परिक्रमा लगाएं ।
श्रीराम की कालानुसार आवश्यक उपासना करें !
नाटक, प्रवचन, पुस्तक आदि के माध्यम से हो रहा देवताओं का अनादर, धर्मश्रद्धा पर आघात अर्थात धर्महानि है । धर्महानि रोकना समष्टि स्तर की उपासना है ।धर्म की सर्व मर्यादाओं का पालन करनेवाले ‘मर्यादापुरुषोत्तम’, आदर्श पुत्र, आदर्श बंधु, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श राजा, आदर्श शत्रु, सभी प्रकार से आदर्श कौन हैं ?, ऐसा प्रश्न करते ही आंखों के सामने जो छवि उभरती है, वह है प्रभु ‘श्रीराम’की !
श्रीरामरक्षास्तोत्रका पाठ
जिस स्तोत्रका पाठ करनेवालोंका श्रीरामद्वारा रक्षण होता है, वह स्तोत्र है श्रीरामरक्षास्तोत्र । भगवान शंकरने बुधकौशिक ऋषिको स्वप्नमें दर्शन देकर, उन्हें रामरक्षा सुनाई और प्रातःकाल उठनेपर उन्होंने वह लिख ली । यह स्तोत्र संस्कृत भाषामें है । इस स्तोत्रके नित्य पाठसे घरकी सर्व पीडा व भूतबाधा भी दूर होती है । जो इस स्तोत्रका पाठ करेगा वह दीर्घायु, सुखी, संततिवान, विजयी तथा विनयसंपन्न होगा’, ऐसी फलश्रुति इस स्तोत्रमें बताई गई है ।
इसके अतिरिक्त इस स्तोत्रमें श्रीरामचंद्रका यथार्थ वर्णन, रामायणकी रूपरेखा, रामवंदन, रामभक्त स्तुति, पूर्वजोंको वंदन व उनकी स्तुति, रामनामकी महिमा इत्यादि विषय समाविष्ट हैं ।
आध्यात्मिक महत्त्व
किसी भी देवता व अवतारों की जयंतीपर उनका तत्त्व पृथ्वीपर अधिक मात्रामें कार्यरत होता है । श्रीरामनवमीको श्रीरामतत्त्व अन्य दिनोंकी अपेक्षा १००० गुना कार्यरत होता है । श्रीराम नवमीपर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम ।’ नामजप व श्रीरामकी भावपूर्ण उपासनासे श्रीरामतत्त्वका अधिकाधिक लाभ होता है ।
रामायण
‘समस्य अयनं रामायणम् ।’ अयनका अर्थ है जाना, गति, मार्ग इत्यादि । जो परब्रह्म परमात्मारूप श्रीरामकी ओर ले जाती है, उसतक पहुंचनेके लिए जो प्रोत्साहित करती है अर्थात् गति देती है, जीवनका सच्चा मार्ग दर्शाती है, वही ‘रामायण’ है ।
कैकेयीने एक वरसे रामके लिए चौदह वर्षका वनवास व दूसरे वरसे भरतके लिए राज्य क्यों मांगा ?
भावार्थ : श्रावणकुमारके दादा धौम्य ऋषि थे व उसके माता-पिता रत्नावली व रत्नऋषि थे । रत्नऋषि नंदिग्रामके राजा अश्‍वपतिके राजपुरोहित थे । अश्‍वपति राजाकी कन्याका नाम कैकेयी था । रत्नऋषिने कैकेयीको सभी शास्त्र सिखाए और यह बताया कि यदि दशरथकी संतान हुई, तो वह संतान राजगद्दीपर नहीं बैठ पाएगी अथवा दशरथकी मृत्युके पश्‍चात् यदि चौदह वर्षके दौरान राजसिंहासनपर कोई संतान बैठ भी गई, तो रघुवंश नष्ट हो जाएगा। ऐसी होनीको टालने हेतु, आगे चलकर वसिष्ठ ऋषिने कैकेयीको दशरथसे दो वर मांगनेके लिए कहा । उनमेंसे एक वरसे उन्होंने रामको चौदह वर्षतक ही वनवास भेजा व दूसरे वरसे भरतको राज्य देनेके लिए कहा । उन्हें ज्ञात था कि रामके रहते भरत राजा बनना स्वीकार नहीं करेंगे यानी राजसिंहासनपर नहीं बैठेंगे । वसिष्ठ ऋषिके कहनेपर ही भरतने सिंहासनपर रामकी प्रतिमाकी अपेक्षा उनकी चरणपादुका स्थापित की। यदि प्रतिमा स्थापित की होती, तो शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध एकत्रित होनेके नियमसे जो परिणाम रामके सिंहासनपर बैठनेसे होता, वही उनकी प्रतिमा स्थापित करनेसे भी होता ।
रामराज्य
ऐसा नहीं कि, केवल श्रीराम ही सात्त्विक थे, अपितु प्रजा भी सात्त्विक थी; इसीलिए रामराज्यमें श्रीरामके दरबारमें एक भी शिकायत नहीं आई । पंचज्ञानेंद्रिय, पंचकर्मेंद्रिय, मन, चित्त, बुद्धि व अहंकारपर रामका (आत्मारामका) राज्य होना ही खरा रामराज्य है ।
प्रभु श्रीरामका नाम लेते ही स्मरण होता है परमभक्त हनुमानजी का नाम ।
 
‘हनुमानजी आत्मविश्वास से कहते हैं –
न मे समा रावणकोट्योऽधमाः । रामस्य दासोऽहम् अपारविक्रमः ।।
करोड़ों रावण भी पराक्रम में मेरी बराबरी नहीं कर सकते । वह इसलिए नहीं कि मैं बजरंगबली हूं, अपितु इसलिए कि प्रभु श्रीराम मेरे स्वामी हैं। मुझे उनसे अपरंपार शक्ति प्राप्त होती है ।’
                                                      *-: विकास पाठक 'चतुर्वेदी'*
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