बंडारू दत्तात्रेय हरियाणा के राज्यपाल द्वारा
सदियों से हम एक राष्ट्र के रूप में अस्पृश्यता और जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। इस तरह की अमानवीय प्रथाओं ने हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को नीचा दिखाया, जिन्हें अछूतों के रूप में वर्गीकृत किया गया था। समय-समय पर महान आत्माओं ने हमें विभिन्न सामाजिक बुराइयों से उबारने का प्रयास किया। उनमें से कुछ थे संत शिरोमणि रविदास, संत चोखामेला, संत कबीर दास, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी राम कृष्ण परमहंस और संत तुकाराम।
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक के उत्तरार्ध में, सुनहरे भविष्य की उम्मीदों से भरा हुआ एक मासूम सा बालक स्कूल की अपनी कक्षा में बड़ी मेहनत से पढ़ाई कर रहा था। वह कक्षा में किस स्थान पर और किसके साथ बैठेगा यह उसके लिए यह कोई मुद्दा नहीं था। हालांकि, जब अन्य छात्रों को उसकी अछूत जाति के बारे में पता चला तो उसे कक्षा में सबसे पीछे बैठा दिया गया। एक बार वह अपने भाई और फुफेरे भाई के साथ अपनी बुआ के गांव जा रहा था। जब पता चला कि वे अछूत हैं तो गाड़ी वाले ने उन्हें बीच रास्ते में ही छोड़ दिया। एक दिन वह बालक कहीं जा रहा था। बीच में वह एक सार्वजनिक नल से पानी पीने के लिए रुका। अछूतों को इस नल की सुविधा का उपयोग करने की अनुमति नहीं होने के कारण उसे पीटा भी गया था।
वह बालक कोई और नहीं बल्कि डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर थे, जिन्हें बाबासाहेब अम्बेडकर के नाम से जाना जाता है। इनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू सेना छावनी में पिता रामजी मालोजी सकपाल और माता भीमाबाई मुरबडकर सकपाल के घर में हुआ। वे अपने माता-पिता की 14वीं संतान थे। अस्पृश्यता, जाति-आधारित उत्पीड़न और बचपन के दौरान भेदभाव जैसी अमानवीय सामाजिक बुराइयों ने उनके जीवन पर एक अमिट छाप छोड़ी।
अपने जीवन की इन कटु घटनाओं ने उन्हें एहसास कराया कि हिंदू समाज में जातिवाद, छुआछूत और अपमान की क्रूर जड़ें कितनी गहरी हैं। जब वह सिर्फ छह साल के थे तब उन्होंने अपनी मां को खो दिया था। इन सभी आघातों के बावजूद, उन्होंने हार नहीं मानी और सभी बाधाओं से संघर्ष करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी। यह अनुकरणीय धैर्य, दृढ़ संकल्प और कभी हार न मानने वाले जज्बे का एक अविश्वसनीय उदाहरण था।
डॉ अंबेडकर ने 1908 में बम्बई से मैट्रिक की परीक्षा पास की। उनके पिता ने उन्हें अच्छे संस्कार देते हुए संत ज्ञानेश्वर जैसे महान संतों की कहानियां और विचार तथा रामायण और महाभारत की शिक्षाएं प्रदान की। उन्होंने 1912 में बम्बई से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई की। बड़ौदा के महाराजा से छात्रवृत्ति के साथ, वह न्यूयॉर्क शहर के कोलंबिया विश्वविद्यालय गए, जहाँ से उन्होंने ‘प्राचीन भारतीय वाणिज्य‘ पर अपनी थीसिस को सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद जून 1915 में मास्टर डिग्री प्राप्त की।
1916 में उन्होनें लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से ‘रुपये की समस्याः इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान‘ नामक विषय की डॉक्टरेट थीसिस पर काम किया। उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए छत्रपति साहू जी महाराज से 5000 रुपये का ऋण लिया। 1920 में लन्दन विश्वविद्यालय द्वारा डी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की। वह बॉन विश्वविद्यालय, जर्मनी भी गए। जून, 1927 में, उन्हें कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह अपने समय के एक दुर्लभ भारतीय राजनेता थे जिन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय, लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स एवं बॉन विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था।
डॉ अम्बेडकर गरीब लोगों, अछूतों के भाग्य के बारे में चिंतित थे। डॉ अंबेडकर चाहते थे कि वे स्वतंत्र हों। उन्होंने बड़ौदा महाराज की अध्यक्षता में दलित वर्ग समाज की स्थापना की। उन्होंने समाज के दबे-कुचले वर्गों के मुद्दों और आकांक्षाओं को उजागर करने के लिए 1927 में रूढ़ीवादी हिन्दू परम्पराओं की आलोचना करने के लिए एक मराठी पाक्षिक पत्रिका मूकनायक और हिन्दू धर्म में जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए बहिष्कृत भारत की शुरुआत की। 1936 में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की। इसने 1937 के बंबई चुनाव में 13 आरक्षित और चार सामान्य सीटों के लिए केंद्रीय विधान सभा का चुनाव लड़ा और क्रमशः 11 आरक्षित और तीन अन्य सीटों पर जीत हासिल की। उनके लिए लोकतांत्रिक मूल्य सर्वोपरि थे!
सभी कठिनाइयों को धत्ता बताते हुए अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, डॉ. अम्बेडकर ने अपना जीवन दलितों की मुक्ति और सशक्तिकरण के लिए समर्पित कर दिया। इसलिए संघर्ष उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया। 1927 में, डॉ. अम्बेडकर ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ महाराष्ट्र के महाड़ में चवदार टैंक से पानी पीकर एक शांतिपूर्ण आंदोलन का नेतृत्व किया, जबकि तत्कालीन बॉम्बे सरकार ने सी.के. बोले द्वारा प्रस्तुत किए गए 192 प्रस्तावों को स्वीकार करते हुए अछूतों को टैंक से पानी पीने सहित सार्वजनिक निधि से संचालित किए जाने वाले सार्वजनिक जलाश्यों, कुओं और धर्मशालाओं का उपयोग करने की अनुमति दे दी थी।
डॉ अंबेडकर ने 3 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मंदिर में सभी हिंदुओं के सुरक्षित प्रवेश के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया। वह हिंदू समाज और हिंदू धर्मशास्त्र के पूर्ण परिवर्तन के पक्ष में थे और सभी हिंदुओं के लिए समान अधिकार सुरक्षित करने के पक्ष में थे। वे समावेशिता के पक्षधर थे। उनका मानना था कि जातिवाद और अस्पृश्यता हिंदू धर्म, वेदों की भावना के खिलाफ है। इसका सार गुणवत्ता, न्याय, बंधुत्व और भाईचारे में निहित है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतने उदार हिंदू धर्म में भी हिंदुओं के एक बड़े हिस्से को अछूत, यहां तक कि जानवरों से भी बदतर माना जाता है। यह उनका दर्द था।
वह हिंदुत्व के विरोधी नहीं थे। उन्हें हिंदू धर्म में आने वाले विकारों के खिलाफ नाराजगी थी। उनमें भारतीयता और राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी थी। हिन्दू धर्म से नाराजगी के चलते उन्होनें किसी अन्य विदेशी धर्म के स्थान पर बौद्ध धर्म को स्वीकार किया जो कि विशुद्ध भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है और जिसे कई सदियों से सम्पूर्ण भारतवर्ष में अशोक जैसे महान सम्राटों के साथ-साथ ही सामान्य जनता ने खूब स्वीकार किया। 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध धर्म की उनकी स्वीकृति उनके भारतीयता के प्रति अगाध प्रेम का परिचायक है। ऐसा कहा जाता है कि जब डॉ अम्बेडकर दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान महात्मा गांधी से मिले, तो उन्होंने उनसे कहा कि वे उस धर्म को स्वीकार नहीं कर सकते जो मनुष्यों को बिल्ली और कुत्तों के रूप में मानता है, और वह एक ऐसे धर्म को अपनाएंगे जो हिंदू धर्म के लिए कम हानिकारक हो।
डॉ अम्बेडकर के व्यक्तित्व की बहुमुखी प्रतिभा अतुलनीय थी। अपने आलोचकों को सुनने की उनकी क्षमता बेजोड़ थी। कई मुद्दों पर वीर सावरकर और महात्मा गांधी के साथ अपने मतभेदों के बावजूद, वे सामाजिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने और अस्पृश्यता और जातिवाद जैसी घृणित बुराइयों से समाज को मुक्त करने के विचारों में एकमत थे। डॉ. अम्बेडकर हमेशा सशस्त्र संघर्ष के खिलाफ थे लेकिन समाज के वंचित वर्गों के समान अधिकार को लेकर वंचित वर्गों की आपसी एकता के साथ अहिंसक संघर्षों और आन्दोलनोें को करने के अटूट हामी थे। वह चाहते थे कि समाज के दलित और उत्पीड़ित वर्ग एकजुट रहें और ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करें ताकि वे उत्पीड़ित न हों।
हमारे संविधान के निर्माता के रूप में, डॉ अम्बेडकर ने हमें एक मजबूत, स्वस्थ और अधिक समावेशी समाज बनाने का मंत्र और रोडमैप दिया है। समाज के वंचित वर्गों, अल्पसंख्यकों, अन्य पिछड़े वर्गों, महिलाओं और मजदूरों के लिए उनकी प्रतिबद्धता आज भी एक सच्चे मार्गदर्शक की तरह राह दिखाती है। वह केवल दलितों के नहीं अपितु समानता और समरसता चाहने वाले देश के सभी 135 करोड़ लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने लोगों के दिलों में एक शाश्वत स्थान हासिल किया है। सामाजिक समरसता के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है।
डॉ बीआर अम्बेडकर को उनकी जयंती पर हमारी सच्ची श्रद्धांजलि सामाजिक समरसता को कायम करने, गरीबी को समाप्त करने का संकल्प लेने और राष्ट्रीय अवसरों और सुविधाओं को सांझा करने में सभी के लिए न्याय और समानता सुनिश्चित करने से होगा। जाति, पंथ, धर्म और क्षेत्र के विचारों से ऊपर उठकर हमें भारत को विश्व गुरु बनाना है। चारों ओर से अच्छे विचार आने दें और उन्हें अमृत काल में पूरे विश्व में फैला दें!
(लेखक हरियाणा के राज्यपाल हैं। व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)