गणपति गणेश जी प्रथम पूज्य, लोक मानस में अति प्रिय देवता हैं।आज गणेश चतुर्थी के पर्व पर उनका आह्वान कर घर घर बुलाया जाता है।आम व्यक्ति गणेश जी की श्रद्धा से उन्हें देवता मान आराधना वंदना करता है तो विवेकशील और ज्ञानी लोग उन के स्वरुप और उनके अलंकारों का विस्तृत वर्णन कर प्रतीकात्मक अर्थ निकाल उनका अर्चन वंदन करते हैं। सबसे बड़ी जो उनके स्वरुप में बात दिखाई देती है वह है उनका अपना सिर और मुख है ही नहीं, अर्थात वे निरहंकारिता के प्रतीक हैं, बिना अहंकार त्यागे न केवल आध्यात्मिक जगत में अपितु किसी भी क्षेत्र में आप सबसे आगे आ ही नहीं सकते।शीश जो अंहकार का प्रतीक है, उसे कटा कर ही प्रेम को पाया जा सकता है। एक और बात जो मुझे अपील करती है वह यह कि सब देवी देवताओं की पूजा में बड़े बड़े फूल उपयोग किए जाते हैं,पर गणेश जी का पूजन दूर्वा अर्थात घास के तिनकों से किया जाता है, अर्थात उनकी पूजा में उन्हें घास भी स्वीकार्य है।पर दूर्वा की विशेषता यह है कि जितना काटो, उतना बढ़ती जाती है अर्थात उसमें अपने आप को विकसित करने की शक्ति होती है। गणेश जी को प्रिय दूर्वा हमें सदैव अपने आप को पुनर्नवा करने का संदेश देती है।आज जो हम नवीनीकरण और नवप्रवर्तन की बात करते हैं, कुछ नया करके दिखाएं, कुछ हट के करो, अपने आप को रिइनवेंट करो,यह सब हमें अकिंचन सी दिखाई देने वाली दूर्वा सिखाती है, कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व बनाए रखती है, तुफान बड़े बड़े वृक्षो को उखाड़ फेंकता है पर ज़मीन से जुड़ी घास को उखाड़ नहीं पाता,बारिश और बाढ़ में जब बाकी वनस्पति बह जाती है,पर घास मिट्टी को भी बहने से बचा लेती है। सिद्धि विनायक, विघ्नहर्ता, सुखकर्ता, गणपति गणेश जी को सबसे अपने अपने ढंग से पूजते हैं,सबका अपना अपना उनके प्रति भाव है,हम भी सच्चे ह्रदय से उन्हें नमन करते हैं कि वो सबको बल बुद्धि प्रदान करें और सब के विघ्नों को दूर सुख समृद्धि प्रदान करें।