परस्पर संवाद ही लोकतान्त्रिक प्रतिबद्धता का अचूक मापदंड है !
डॉ कमलेश कली
नये संसद भवन के भूमि पूजन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकतंत्र को जीवन का मंत्र और व्यवस्था का तंत्र बताया। उन्होंने विशेष तौर पर गुरु नानक देव जी को उद्धृत करते हुए "जीवन में संवाद चलते रहना चाहिए", इस पर भी बल दिया। शायद ये बात उन्होंने किसान आन्दोलन के संबंध में कही और सरकार किसानों से बातचीत करने के लिए तैयार है, इस मंतव्य से कहीं हों।प्रजातंत्र में वाद, विवाद, संवाद और प्रतिवाद सब की गुंजाइश होती है, प्रजातांत्रिक व्यवस्था की तो नींव ही सार्थक और रचनात्मक संवाद पर टिकी होती है जो कि न केवल द्विपक्षीय अपितु बहुपक्षीय विचार विमर्श और परस्पर वार्तालाप पर निर्भर करती है । लेकिन अब जो देखने में आ रहा है, सशक्त विपक्ष के अभाव में मौजूदा सरकार अपने बहुमत के बल पर निरंतर मनमानी कर रही है। बिना सहमति बनाए ,प्रजातांत्रिक प्रक्रियाओं को केवल नाम मात्र पूरा कर पहले निर्णय ले लिये जाते हैं, आर्डिनेंस जारी कर देते हैं, बिना डिबेट और डिसकशन के कानून बना लेते हैं, लागू कर देते हैं फिर लोगों को विश्वास दिलाया जाता है कि ये जनहित और आम पब्लिक के फायदे के लिए बनाएं गये है। आर्थिक सुधारों के नाम पर और अपने राजनीतिक फायदे के लिए सरकार जो चाहती है वही कर रही है और विरोध में उठने वाली आवाज को, आंदोलन को और प्रदर्शन को दबा देती है।नोटबंदी, जीएसटी,सीएए ,एन आरसी और अब कृषि कानून सरकार के एकपक्षीय और निरंकुश रवैये को बताते हैं।श्रम कानून बनाने से पूर्व श्रमिकों के नेताओं और उनकी यूनियनों से बिना सलाह-मशवरा किए बना दिये गये, लागू कर दिए गए बाद में उन्हें विश्वास दिलाया जाता है कि ये उनकी भलाई के लिए बनाएं गये है।इसी तरह ही कृषि सुधारों से संबंधित कानूनों का मुद्दा है, सरकार का कहना है कि ये किसानों के फायदे के लिए बनाएं गये हैं , किसान संगठित होकर उनका विरोध कर रहे हैं,जन आन्दोलन कर रहे हैं, उन्हें रद्द करने की मांग कर रहे हैं।
सरकार तो जनहित में काम कर रही है ,समझ में नहीं आता कौन से और किस के जनहित में काम कर रही है?आम जनता की सुनवाई ही नहीं है ,सब ऊपर से थोपा जा रहा है।
मोदी जी के मुख से संवाद की महत्ता के बारे में सुन कर अच्छा लगा, क्योंकि वो तो केवल बोलते एवं कहते हैं, जबकि संवाद में कहना,सुनना और समझना भी शामिल होता है। चाहे उनकेे "मन की बात" के सत्तर से ज्यादा एपिसोड हों या असंख्य चुनावी रैलियों में भाषण हों या फिर लाल किले की प्राचीर से उनके एतिहासिक संबोधन हों, वो विद्वता पूर्ण होते हैं, देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होते हैं, कोई संदेह नहीं पर शायद ही उनमें से कोई संवाद या वार्तालाप की श्रेणी में आता हो। संविधान दिवस मनाने से या नये संसद परिसर का निर्माण कर के लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता सिद्ध नहीं होती,ये तो केवल दिखावा मात्र और प्रचार का तरीका भी हो सकता है, सार्वजनिक जीवन में असल लोकतंत्र प्रतिबद्धता को तो केवल परस्पर संवाद स्थापित करके ही सिद्ध किया जा सकता है, जो कि निरंतर कम हो रहा है।