डॉ कमलेश कली
बचपन से ही मेरी मां हम सब को खाना खाने से पहले भगवान को भोग लगाने के लिए कहती थी, और कुछ नहीं तो कृष्ण अर्पणं बोल दो ऐसा कहती थी। घर में विशेष अवसरों पर विधिवत भोग लगता था और ऐसा माना जाता था कि भोग लगाने से सब प्रभु प्रसाद बन जाता है, फिर तेरा मेरा नहीं रहता,बरकत भी रहती है,रज भी होता है अर्थात तृष्णा नहीं रहती। मंदिर, गुरुद्वारे और सब धर्म स्थलों पर भोग लगाने और फिर प्रसाद वितरण करने के अपनी अपनी प्रथा होती है पर किसी न किसी रूप में अर्पित जरुर किया जाता है, यहां तक यज्ञ करते हुए भी नैवेद्य समर्पित किया जाता है।एक बार एक छात्र ने अपने गुरु जी से इस संदर्भ में सवाल किया कि हम यूं ही भगवान को भोग लगाने की प्रथा निभाते हैं, क्योंकि भगवान तो खाता ही नहीं, अगर भगवान खाता तो अर्पित हुई वस्तु ,खाद्य पदार्थ कम होना चाहिए ,जब भगवान खाते ही नहीं तो फिर भोग लगाने न लगाने से क्या फर्क पड़ता है। गुरु जी उस छात्र के सवाल पर उस समय तो चुप रहे , थोड़ी देर में उस छात्र बुलाकर पुस्तक से एक श्लोक याद करने को कहा ,तुभ्यम वस्तु गोविन्दं,तुभ्यमेव समर्पेयते,गृहाण सम्मुख हो भुत्वा, प्रसीदं परमेश्वर:, छात्र ने थोड़ी देर में श्लोक कंठस्थ कर लिया और गुरु जी को सुनाने लगा। गुरु जी बोले नहीं तुम्हें याद नहीं हुआ। छात्र ने आग्रह कर के कहा ,आप चाहे तो पुस्तक में देख सकते हैं।तब गुरु जी बोले, श्लोक तो किताब में वैसे का वैसा है,पर तुम्हारे पास कैसे आ गया?इस पर छात्र चुप हो गया,तब गुरु जी ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है,वह स्थूल है, तुमने कंठस्थ कर लिया तो सूक्ष्म रूप से श्लोक तुम्हारे दिमाग में चला गया, श्लोक वहां पुस्तक में भी वैसे का वैसा है, और तुम्हारे दिमाग ने भी याद कर इसे गृहण कर लिया है। ऐसे ही जब हम भगवान को भोग लगाते हैं तो भगवान हमारी भावना अनुसार उसकी भासना लेते हैं, स्थूल रूप से चाहे वस्तु और खाद्य पदार्थ कम नहीं होता,पर हमारी भावना वहां तक पहुंचती है। शिष्य को अपनी बात का उत्तर मिल गया, और उसे समझ में आ गया कि भावना तो तर्क वितर्क से परे होती