दशहरा विजयादशमी एक प्रतीकात्मक त्यौहार है। दशहरा कहते ही दशानन-रावण याद आता है, तो विजयादशमी राम की विजय की घौतक है। हमारी सांस्कृति में सफलता, विजय को अकेले नहीं सामुहिक तथा सामाजिक स्तर पर मनाया जाता है। आज राम से ज्यादा चर्चा रावण की होती है, प्रतिवर्ष रावण को जलाया जाता है, पर लगता है शायद अगले ही दिन रावण पुर्नजीवित हो उठता है, इसलिए ही शायद रावण भी सोचता होगा कि तुम मुझे जलाने से पहले, अपने आप से पूछो कि तुम राम बने हो, राम बनकर ही रावण पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इसामसीह ने भी कहा था कि इस वैश्या को पत्थर मारने से पहले अपने आप से पूछो, क्या तुमने कोई पाप नही किया? आज इस संदर्भ में सोचने की जरूरत है कि आज हर व्यक्ति दूसरे को रावण समझ रहा है तथा अपने अन्दर छुपे रावण को न पहचानता है न ही उससे युद्ध करने को तैयार है। राम ने रवण पर विजय पाने के लिए शक्ति पूजा की इसलिए प्रतीक स्वरूप दशहरे से नौ दिन पूर्व दुर्गापूजा तथा देवीपूजन किया जाता है। पर शायद ही नवरात्रों मेें शक्ति अर्जित, चाहे वह अध्यात्मिक हो या संसारिक का प्रयास किया जाता हो, उनका महत्व तो केवल व्रत, उपवास तथा अनुष्ठान तक ही सीमित हो गया है। पौराणिक दृष्टि से कहते है सतयुग मेें जो युद्ध हुआ, देवासुर सग्राम था, अर्थात् देवताओं और असुरों में अर्थात् देवी गुणों तथा बुराईयों के ‘मध्य था, त्रेता युग में राम-रावण युद्ध दो राजाओं के बीच था, द्वापर में महाभारत-दो परिवारों में युद्ध की कहानी है। आज कलयुग तो ‘कलह युग‘ बन गया है। हर स्तर पर युद्ध व्यापी है, चाहे वह वैयविस्तक है पारिवारिक है परिवार तो खत्म होने के कागार पर पहुंच गए है। राम अपनी पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह का आदर्श स्वरूप है, शायद ही राम के चरित्र से समाज प्ररेणा लेता हो चाहे राम उनके देवता ही क्यों न हो। रावण जो मूलतः दस विकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार तथा अन्य पांच सूक्ष्म विकार-जैसे वैमनस्य आलस्य, असूया इत्यादि का प्रतीक है, उनके उन्मूलन पर कोई ध्यान न देकर, केवल सत ही दृष्टि से त्यौहार मनाया जा रहा है। नारी सुरक्षा जो आज समाज का ज्वलत मुदद्ा है, उसका समाधान भी राम-रावण चरित्र के अध्ययन तथा समझने में छिपा हैं रावण ने तो पर स्त्री का हरण किया था, उसने सीता की सहमति के बिना उसे हाथ तक नहीं लगाया था, शायद यह रावण का समय ही था, जिससे सीता की पवित्रता अक्षुण्ण बनी रही पर आज तो हर कूचे गली मोहल्ले में भयंकर रावण देखे जा सकते है। राम-लीला का मंचन युगों से हो रहा है, पर रामायण जिन आदेशों तथा ऊंचे मानदंडों का प्रतिपाद लोलुपता सुविद्याभोगी जीवन तथा स्वार्थपरता ही मुख्य गुण हो गये है। न केवल राजनीति में समाज में व्यक्ति में हर स्तर पर मूल्यांे का अवमूल्यन हो रहा है। धर्म गाय और बकरी का प्रयाम बन गया है। आस्था का मतलब केवल अपने धर्म, जाति के प्रति सम्मान तथ्य बाकी धर्माें के प्रति बेअदबी नहीं है। सामुहिक अवचेतन में समाया रावण, जो नित प्रति वृद्धि पर रहा है। कभी वह भ्रष्टाचार बन जाता है कभी वह व्यक्तिचार तथा अनाचार बन जाता है, उसे पहचानने की आवश्यकता है, राम जीवन में त्याग और तपस्या कर्तव्यनिष्ठा, वचननिर्वाह तथा सत्य जलाते है, पर अडिग रहना सिखाते है आज यह सोचने की जरूरत है कि हर साल रावण जलाते है, पर वह जलता नहीं है, किसी अन्य रूप मेें हमारे समक्ष आकर खड़ा हो जाता है, क्योंकि हम राम बनकर रावण को जीतने नहीं है तथा हनुमान बनकर लंका दहन नहीं करते है, हम केवल तमाशा रचेत है। गम्भीर चितंन और मनन-व्यक्तिगत समाजिक तथा सार्वजनिक जीवन से ऐसे गायब है, जैसे गधे के सिर से सींग। इस दशहरे पर नये ढंग से सोच तथा अपने आप से पूछे कि क्या मैं यथार्थ में अपनी बुराईयों तथा दुर्गुणों रूची रावण पर विजय पा रहा हूं या मात्र तमाशा देख रहा हूं।
डा. क. कली