हम जिंदगी जीना भी चाहते हैं और जिंदगी जीने से बचना भी चाहते हैं।हम कर्म करना भी चाहते हैं, कर्म से भागना भी चाहते हैं। क्या कारण है? कौन जो रोकता है हमें भरपूर जीने से, भरसक प्रयत्न करने से,क्यूं हम कटना चाहते हैं? जबकि जुड़ाव में ही निहित हैं- हमारा आह्लाद, उल्लास हमारी प्रसन्नता।देने में ही सच्ची खुशी मिलती है, पर हम क्यों लालायित रहते हैं सदा लेने में। क्यों देन-लेन के चक्कर में फंसे रहते हैं?लुटाकर ही मुक्त होते हैं। पर क्यों सदैव जोड़ने में व्यस्त रहते हैं? सतत् कर्म करके ही हम पल्लवित-पुष्पित होते हैं, पर क्यों हम कर्म करने से, अपने आप को झोंक देने से कतराते रहते हैं जिम्मेवारी करती है विकास व्यक्तित्व का, लाती है बाहर जो छिपा है सर्वोत्तम, श्रेष्ठ भीतर हमारे। पर हम बचते रहते हैं, बचाते रहते हैं अपने आपको जिम्मेदारी से।कौन सी विवशता है, जो बांधती है हमें अपनी छोटी दुनिया से। क्यों हम अपने को सीमित करते हैं छोटी परिधि में। पाना चाहते हैं अपरिमीत, उड़ना चाहते हम उन्मुक्त विशाल आकाश में।
शायद हमें अपने पंखों पर भरोसा नहीं। अपनी क्षमता, अपनी प्रतिभा में विश्वास नहीं।अपने आप से भयभीत, अपने आप से युद्ध में लीन।शक्ति की पूजा-अर्चना करते हम हर नवरात्रों में, प्रार्थना करते मांगते शक्ति।शक्ति तो अर्जित करनी होती है। शक्ति- सत्ता व धन का पर्याय है और नहीं भी।आओ हम स्व की शक्ति की करें आराधना-उपासना- ‘‘स्व से सर्व की ओर निरंतर बढ़ते रहने की।
(डॉ० क० 'कली')