भारतीय संस्कृति में, जीवन में गुरु के महत्व को प्रदर्शित करने को गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाया जाता है। गुरु का शाब्दिक अर्थ है- अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना, ‘असतो मा सद्गम्य’ का जीवन में शाश्वत महत्व है। प्रतिदिन-प्रतिक्षण गुरुतत्व का जीवन में महत्व है। परंतु स्मृति स्वरूप भारतीय संस्कृति में एक दिन, आषाढ़ पूर्णिमा का दिन, गुरु के निमित्त नियत किया गया है। वास्तव में गुरु व्यक्ति का प्रतीक न होकर तत्व का प्रतीक है। शास्त्रों में गुरु महिमा का बखान नाना प्रकार से किया गया है। ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:’ यहां तक कि गुरु को साक्षात परब्रह्म भी माना गया है। सिख धर्म तो खड़ा ही ‘गुरु पद पंकज सेवा’ पर है। चाहे ‘कृष्ण वंद जगदगुरुम्’ कहो या तुलसीदास कृत हनुमान चालीसा में ‘जय-जय हनुमान गोसाईं, कृपा करो गुरूदेवकी न्याईं’ सबने गुरु की वंदना अलग-अलग ढंग से की है। ‘मुण्डे-मुण्डे मति भिन्ना, तुण्डे-तुण्डे सरस्वती’ अर्थात सबने अपनी-अपनी बुद्धि तथा भावना के अनुसार गुरु की अवधारणा को जीवन में उतारा है। कहा जाता है कि दत्तात्रेय ने 24 गुरु धारण किये थे अर्थात जहां से भी उन्हें सीखने को मिला, उसी को उन्होंने गुरु का दर्जा दिया। कहते हैं कि जीवन में माता सबसे पहला गुरु होती है। फिर जीवन में कुलगुरु, सतगुरु, जगतगुरु किसी भी नाम से पुकारो, गुरु का प्रवेश होता है। ‘गुरु बिना गत नहीं, शाह बिना पत नहीं’ पंजाबी की यह पंक्ति बताती है कि जीवन में गुरु के बिना सदगति नहीं हो सकती अर्थात जीवन में प्रकाश व ज्ञान के अभाव में जीवन रीता व व्यर्थ हो जाता है। आज के दिन गुरु पूजा भी की जाती है। शिष्यगण अपने गुरुओं का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। भारतीय संस्कृति में गुरु व्यक्ति न होकर जीवन में उस शक्ति का प्रतीक है, जो हमें सद्राह पर चलने की प्रेरणा देती है। हमारे हृदय को सत्य और सद्गुणों के प्रकाश से आलोकित करती है। शायद यही सोचकर ही कबीर जी ने यह दोहा रचा होगा- ‘गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागू पायं, बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोबिंद दिओ मिलाय’ अर्थात गुरु को परमात्मा से भी बड़ा दर्जा दिया गया है।
वर्तमान संदर्भ में भारत फिर से विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर है। ज्ञान और सत्यता की खोज हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। कहते हैं कि धर्म तो यहां हवा में ही व्याप्त है। आध्यात्मिकता चहुं ओर अनुभव की जा सकती है। परंतु साथ ही धर्मगुरुओं तथा बाबा लोगों के इस देश में ढोंग, अंधविश्वास तथा ठगी बड़े पैमाने पर देखी जा सकती है। कई गुरुओं ने धर्म और व्यवसाय को जोड़ा है, तो वहीं धर्मगुरुओं का राजनीति में भी वर्चस्व भी बढ़ा है। धार्मिक व आध्यात्मिक टीवी चैनलों पर स्वघोषित व स्वप्रचारित गुरुओं की तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। आज गुरु पूजा विज्ञापनों, बड़े-बड़े बैनर्स तथा पैम्फ्लेट्स से हो रही है। यही संस्कृति का अपभ्रंश हो जाना है। इसीलिये युवा वर्ग आज आधुनिकता और प्राचीन संस्कृति के मध्य भ्रमित हो, चुनाव नहीं कर पाता। संस्कृति में छिपे जीवन मूल्य आज अपना महत्व खो रहे हैं, क्योंकि गुरुतत्व यानी प्रकाश व ज्ञान का प्रतीक जीवन से नदारद है। गीता इसका बड़ा उदाहरण है- अर्जुन के जीवन में कृष्ण गुरु हैं। ऊंचे स्थान पर होते हुए भी उसके सारथी बने हुए हैं। ज्ञान लेने वाला अर्जुन ऊपर बैठा है और ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण नीचे बैठे हैं। कृष्ण कभी उसे मूढ़ तथा मूर्ख कहकर प्यार से डांटते हैं तो कभी महान, वीर, निद्रा को जीतने वाला, परमतप कहकर उसे प्रेरित करते हैं। अर्जुन शिष्यत्व का प्रतीक है तो श्रीकृष्ण गुरुतत्व के, तभी गीता जैसे महान ग्रंथ की उत्पत्ति होती है। अंत में, गुरु पूर्णिमा पर सबके जीवन में सत्यता, प्रकाश व सद्गुणों के गुरुतत्व का आविर्भाव हो, इस प्रार्थना के साथ सभी गुरुजनों को श्रद्धा से नमन।
(डॉ० क० ‘कली’)